वो भी क्या दिन थे


वो भी क्या जमाना था
जब एक ही घर में सब का ठिकाना था
रहते थे सब साथ मिलाकर
दादी दादा, चाची चाचा, 
बुआ, टिंकू, चिंटू और सभी
था घर छोटा उनका 
पर दिल था सबका बड़ा 

बनता था खाना सबका 
एक ही लकड़ी वाले चूल्हे 
या किरासन तेल से चलने वाले स्टोव पे
और घर की सब औरतें थी 
मिलकर बनाती बड़े चाव से उसको
जिसमें था स्वाद प्रेम का 
और थी मिठास अपनेपन की

रात होते ही पहुंच जाते थे 
सब बच्चे पास दादा दादी के 
सुनने कहानियां पंचतंत्र , 
रामायण और महाभारत की 

वो गांव या कस्बे के स्कूल में पढ़ने 
पैदल या साइकिल से जाना
कार्य न करने पर स्कूल अध्यापक की 
डांट सुनना या मार खाना
बच्चों के माता पिता का
 उनसे शिकायत न करना 
आपने हमारे बच्चे क्यों मारा था
वो अध्यापक के प्रति उनका 
अलग ही श्रद्धा और विश्वास दर्शाता था

वो त्यौहारों के बीस पच्चीस दिन 
पहले से उसकी तैयारियां करना
सब लोगो का इस अवसर पर घर में इकट्ठा होना 
और मिलकर बड़े उत्साह से त्यौहारों को  मनाना
घर पर बने  विभिन्न प्रकार के  स्वादिष्ट पकवानों के 
खाने का लुफ्त उठाना एक अलग ही आनंद था

जब घर में होता था कोई शादी का अवसर 
सब रिश्तेदारों का दस दिन 
पहले से ही घर पर इक्ट्ठा होना
वो देशी संगीत और  गाना  बजाना
वो मेहमानो से सजी महफिल 
और  सब लोगो के उमंगों का ठिकाना
इस अवसर पर हर रस्मो को निभाना
होती थी अनुभूति एक विशेष खुशी की

कभी घर में कोई परेशानी आने पर 
घर के सभी लोगो का एक साथ मिलजुल कर 
कंधे से कंधा मिला कर उसका सामना करना
हर सुख दुख में मजबूती से साथ खड़ा होना
ये उनके लिए रिश्तों के अहमियत को दिखलाता था

न था उस ज़माने में था आज 
जैसी आधुनिक सुख सुविधाओं का मेला 
लेकिन था एहसास उनको
 इस धागे की अनमोल होने का
जो उनको बांधे था रखता एक ही माला में
वो समय ही कुछ और था ........कुछ और था ...........

Comments

AKS said…
Advut Chitran

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