राम कथा (तृतीय खण्ड )
तभी समयचक्र ने ली करवट
सब कुछ हो गया उलट पलट
होगा कैसे संघार असुरों का हुवे देवता चिंतित
देख दशा देवो की मां सरस्वती हो गई विचलित
जा बैठी मंथरा की जिह्वा पर
कर दिया मतिभ्रम मंथरा को
मंथरा ने केकयी को बार बार समझाया
केकयी से भरत के लिए राजसिंहासन की बात को मनवाया
अपने बातों को मनवाने की खातिर
जा बैठी केकयी कोपभवन में
जब पहुंचे राजा दसरथ केकयी के पास
पूछा आप क्यों हो इस शुभ अवसर पर उदास
तब केकयी ने अपने दो वचनों की याद
राजा दशरथ को दिलाई
अपने पुत्र भरत के लिए अयोध्या का राजसिंहासन
और राम के लिए चौदह वर्ष के वनवास की फरमाइश
सुनते ही केकयी की अनुचित मांग
हुवे अचंभित राजा दशरथ महाराज
किया प्रयत्न समझाने का केकयी को
लेकिन अपनी जिद पे अड़ी रही वो
हो गए मूर्छित राजा दशरथ वही पे
नही कोई फर्क पड़ा केकयी पे
इधर हो रही थी तैयारियां जोरो से
चारो तरफ माहौल था खुशी का
जब पहुंचे राम राजा दशरथ के पास
बोले वोआज्ञा दे पिताश्री महाराज
तब बोली केकयी राम से
अपने दो वचनों की बात राम से
मांगा है मैने राजसिंहासन भारत के लिए
जाना होगा तुम्हे चौदह वर्ष वन के लिए
सुनके बात केकयी की मंद मंद मुस्काए
हाथ जोड़ कर बोले मां आपकी आज्ञा है शिरोधार्य
किया धारण संन्यासी का वस्त्र
जा पहुंचे मां कौसल्या के समच्छ
बोले माता दो मुझे अब अनुमति
जाना है मुझे वन में आज़ ही
गए जानकी के पास राम जी
हुवी अचंभित मां जानकी
तब बोले मैं जा रहा वन को
रखने मान पिताजी के वचनों को
तुम रहकर यही अयोध्या में
करना सेवा मां और पिताजी की
वन में जीवन बहुत कठिन है
पग पग पे है वहा मुश्किल है
खाना होगा कंद मूल और फल
रहना होगा झोपड़ी में हर पल
न होगे वहा कोमल बिस्तर
सोना होगा बिन बिस्तर धरती पर
चलना होगा हमे नंगे पैर
रास्ते में होंगे कांटे बहुतेर
होंगे वन में मायावी राक्षस
जिनसे जीवन नही है सुरक्षित
तब हाथ जोड़कर बोली जानकी
मैं हूं अर्धांगनी आप की
बिना आपके ये सुख वैभव कैसा
यह शरीर प्राणों बिन जैसा
मेरा पतिधर्म है यही सिखाता
मेरे लिए है आप का साथ स्वर्ग सा
जहा रहेंगे आप वही होगा स्वर्ग मेरे लिए
बिना आप के सब कुछ मूल्याहीन है मेरे लिए
वन का जीवन मैं सह लूंगी खुशी से
रहूंगी सदा साथ आपकी छाया बनके
मिलेगा सौभाग्य आपकी सेवा का
इस बड़ा नही कुछ सुख होगा मेरा
सुनके बातें राम जानकी की
होके निरुत्तर दी आज्ञा साथ चलने की
तब लखन बोले राम से
मैं भी चलूंगा साथ आप के
किया प्रयत्न लक्ष्मण को समझाने का
रहे असफल राम उनको मानने को
तब दिया आदेश उनको भी साथ चलने का
सब निकले सन्यासी के वस्त्रों में
लेने गए सब राजा दशरथ से आशीर्वाद
हुवे देख उनको राजा दशरथ उदास
एक अंतिम कोशिश की केकयी की समझाने की
लेकिन अडिग रही अपनी निर्णय पे केकयी
जैसे यह बात नगरवासियों तक पहुंची
हो गए दुखी और चकित सभी नगरवासी
लगे धिक्कारने सभी केकयी को
देने लगे दोहायी राम को रोकने को
राम ने किया प्रयास समझाने का
तब सब बोले साथ चलने को
किया दान अपने आभूषणों का
लिया आशीर्वाद मुनीजन ऋषियों का
रथ में सवार होके सुमंत के
चले अनाथ करके अयोध्या को
दौड़े राजा दशरथ रथ के पीछे
होकर गिर गए वहीं जमीं पे
हाल बुरा था वहा सभी का
आसूओ का सैलाब उमड़ा जैसे था
चारों तरफ़ दुःख का वातावरण था
मानो जैसे कोई विपदा आन पड़ा था
छोड़ सुमंत प्रभु राम मां जानकी और लखन को
किया अश्रुपूरित आंखों से प्रणाम उन सभी को
तब बोले हाथ जोड़ राम सुमंत को
रखना खयाल है माता और पिताजी का
आपको
पुत्र वियोग में डूबे राजा दशरथ को तब
आने लगा याद श्रवण कुमार का तब
बोले हाथ जोड़ माता कौशल्या से तब
चला मैं श्री हरी चरणों में अब
लेके विदा सुमंत से सब
किया आरंभ अपनी वन की कठोर यात्रा तब
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