अभिमान

ना जाने बेचैनी सी है क्यों
न जाने उदासी सी है क्यों
कहीं ये तूफान से पहले की खामोशी तो नही 
कहीं ये कुछ अनर्थ होने की खामोशी तो नहीं 

कुछ लोग समझते है अपने को ईश्वर से ऊपर
चढ़ता जाता है उनका अहंकार चढ़कर सिर पर
लगते है खेलने लोगो के जीवन से वो जाहिल 
समझने लगते है अपने को दुनिया में सबसे काबिल

उनके लिए सब कुछ बिकाऊ है इस दुनिया में
पैसों से सब कुछ खरीदा जा सकता है इस दुनिया मे 
वो मूर्ख नहीं समझते है इंसान की खुद्दारी 
कुछ लोग नही कर सकते अपने जमीर से गद्दारी 

जब बढ़ने लगता है उनके अत्याचारों की अति
जब होने लगती है उनके इस अति की पुनरावृति 
उन अज्ञानी को याद नहीं आता है इतिहास
कैसे हुआ था रावण और कंस का विनाश

तब ऊपरवाले की लाठी चलती है
नही उसमे कोई आवाज होती है
हो जाता है जब सब कुछ उनका खत्म 
तब जाकर टूटता है उनका यह झूठा भ्रम ।

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