मृगमिरिचिका


निकल पड़े थे किसी के 
तलाश में इक सफर पे
न था मालूम हमे ये 
इस सफर की कोइ मंजिल नहीं है

हुआ एहसास इन सुनसान 
और वीरान राहों का जब तक
भटक कर जा पहुंचे थे उन 
खंडहरो के शहर में तब तक

अजीब सन्नाटा सा छाया था वहा पर
लगता नहीं सालो से कोई आया था वहा पर
हमने चारो तरफ नजरे अपनी घुमायी
शहर के हर कोने कोने में फैली हुवी थी तन्हाई 

तभी हमारी नजर एक बड़े 
पत्थर से जा टकराई थी
जिस पे लिखी थी गई  
कहानी किसी के बेवफाई की

कोई आशिक निकाला था 
किसी की तलाश में सफर पर
नही पहुंचा वो वापस कभी
लौटकर अपने मंजिल पर

निकाला था जिसकी तलाश 
में था घर से वो  
हो गई थी किसी और की 
बेवफा अब वो 

गुजर दी सारी जिंदगी उसने 
यादों के सहारे उस वीरान शहर में 
करती रही उसकी आंखें किसी के 
आने का इंतजार आखरी पल में ।

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